ये कलयुग है ये कलयुग है यह रोना रोते नहीं थके
अपने पापों का बोझा हम जो ढ़ोते-ढ़ोते नहीं थके
इस भीड़ में भी रीढ़ कहाँ काणों में अंधे हैं राजा
जो स्वार्थ के तलवों तले हम सच कुचल बढ़ते चले
ये साधु सभी ये संत सभी क्यों आँखें मींचे बैठे हैं
मन-परिजन की पीड़ा पर क्यों पर्दे खींचे यह बैठे हैं
कलयुग के कोलाहल में अब करुणा की भी कौन सुने
ईमान की नीलामी से सिक्के हम ऐंठे बैठे हैं
कोई धोबी हो या धर्मराज, लत जुए की सबको है प्यारी
इस अंधकार की वर्षा में हम ढूँढ रहे हैं गिरधारी
नेत्रहीन नृप कईं हुए, देखे हमने धृतराष्ट्र कईं
पर न्याय की यह नायिका क्यों बन बैठी आज गांधारी?
चाहे कलयुग हो या हो त्रेता नारी का हर-पल हुआ हरण
हर राजभवन की छाया तले होता आया मर्यादा-मरण
चीर का एक छोर आज भी है हथेली में तेरी
ज़रा मन टटोल और खुद से पूछ, तू देव है या दैत्य है?
संकट है ये, विकट हैं ये, पर छोड़ना ना तू आशा
पिछले कर्मों पर क्या रोना, है व्यर्थ ये निष्कर्म निराशा
रौद्र राग को त्याग तू भज हौंसले की हंसध्वनि
है दृष्टिकोण का खेल सब चल बदलें कलयुग की परिभाषा
तू स्वयं में ही ढूँढ़ कृष्ण न मूरत को मान बैठ मुरारी
तेरे चित्त की चिंगारी से रोशन हो यह दुनिया अँधियारी
जो हर मानुष ढूँढ ले अपने भीतर दसवाँ अवतार
तो सत्त्व की सरस्वती से तृप्त होगी सृष्टि सारी
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