कागज़ पर खिंची सीधी लकीरें, सलाखों से कम नहीं कैद हैं इस कारावास में न जाने कितनी कहानियाँ सलाखें भी ऐसी कि आर-पार कोई सार ना दिखे और पन्ना पलटें तो फिर कई सीधी लकीरें... कई क़ैद नज़्म...कई अनकही कहानियां... कोरे कागज़, कोरी किताबें, क़ैद कई प्रश्नों के प्रेत कब छूटेंगे प्राण इनके, कब सींचेगा कल्पना के खेत? इस सवाल से जूझते हुए तू कभी उम्मीद में, कभी हताशा में उन सलाखों के परे छिपे शब्दों की पुकार ढूंढे सन्नाटे में दूर कहीं जो मद्धम सी लोरी सुनाई पड़े... जब तलक तेरी सोच झांक कर आज़ादी को ढूंढे जब छलक कर उफ़ान मारे अभिव्यक्ति की बूंदें तब कागज़ और कलम की नोक में घर्षण होगा मंद सा चुप्पी के ताले तोड़े बोलेगा मन मलंग सा हिचक की हिचकी से बेहतर आखिर शब्द और स्याही की सरिता बह जा इस पावन धारा में मुक्त कर हर कैद वो कविता उठा कलम, रचते चला चल, मुक्त कर हर क़ैद कहानी जो स्वर्ग समाए हर सर्ग में, अमर हो मानुष की वाणी...
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