आज अचानक मुझे वो बचपन याद आ गया
लगा मानो जैसे पलों में जीवन समा गया ,

थे वोह भी दिन भीगे मल्हार के
जब कपडे दो जोड़ी ; दोस्त हज़ार थे

एक लकड़ी, एक पंचर पहिये का था साथ
गरजते बादल थे , थी कुछ बूंदों की छांट

बस कोशिश नहीं करूंगा और याद करने की
बर्दाश्त की भी हद्द होती है
पिसती ख़ुशी की, रिसते ग़म की भी


बस घुटन में , चुभन में याद करता हूँ वोह पल सुहाना
कुछ ना चाहूं , चाहूं बस
आज को भुलाना, उस कल में घुल जाना |


और आज, इस बेसुरे से ट्रैफिक में फंसे हैं
वर्क प्रेशर ही होगा जो टायर तक की फूँक छूट गयी

स्क्रू जैक लगाये लंगड़ी गाडी है खड़ी
और सूट पहने खड़ा हूँ मैं, हाथ में पंचर पहिया लिए

बायें हाथ से फांसी के फंदे को ढील दी
इक लावारिस काठी ढूंढ़ लाया

और रास्ते पर मैं और इक डोलता पहिया
टशन में, तलाश में , आगे बढ़ते हैं

कि शायद कुछ दोस्त मिल जाएँ चलते चलते
कि शायद उस पार कुछ बारिश भी होगी …