ज़रा सुनो सुब्हा की हुंकार
पुकारे वो करके सिंगार
चल रोशन है अब जग सारा
पलभर नैनन से इसे निहार
पलभर नैनन को खोल दे
कलरव की खुशबू घोल दे
निंदिया के सपने छोड़ कर
जीवन स्वपन को मोल दे
पत्तों पर ओस सुहानी है
शाखों पर लदी जवानी है
फूलों की ज़िद तो देख ज़रा
बस खिलने की मनमानी है
दिनभर में कितना गया बदल
बादल बन बैठे गंगाजल
कीचड़ को चीर महकते हैं
ये रंग बिरंगे नीलकमल
संक्रांत की ये भीनी धूप
पतंगों से भरा गगन अनूप
सूर्य देव का स्मरण कर
धरती धरती अपना स्वरूप
चल त्याग दे तमस का घेरा
रोशन हुआ अब हर अंधेरा
कर सत्य की तू स्थापना
कर कर्म से एक नया सवेरा
कर कर्म से एक नया सवेरा
कवि – श्रीनाथजी