उस शाम, हर बीती शाम की तरह
मैंने सोच को संजोए शाम बिताई
और उस जतन से ही मानो
कुछ सुंदर पंक्तियां उभर कर आयीं
मैंने शब्दों के इस संचय को कागज़ पर उतारा
और उस रात बेशक बड़ी मीठी नींद आई
सुबह हुई तो मैं मेज़ पर ही सोया हुआ था
और कागज़ पर मेरे मस्तक की लकीरें छपी थीं
सूरज चढ़ चुका था, नशा उतर चुका था
और कल की कविता अब कुछ फ़ीकी सी लगने लगी थी
मैंने हताशा में उस कागज़ को मसल कर गेंद बना दिया
और एक भावी रत्न को कूड़ेदान का स्थान दिखा दिया
विचारों के मंथन से कविताएँ हर रात उभर कर आती थी
पर नसीब ही उनका ऐसा
कि सुबह के प्रकाश,
पंक्तियों के प्रकाशन,
से वंचित रह जातीं
फ़िर एक दिन
मैंने मीनार पर चढ़े एक दीवाने को देखा
होगा नाश ज़िन्दगी का जो उसने कोई दायरा न देखा
ऐसी कोई भीड़ नहीं जिसमें उसने मुशायरा न देखा
और बस अंदाज़ में पिरो के शब्दों का पांसा जो उसने फेंका
कि बाज़ार में गूंज उठा मंज़र वाह-वही का
जैसे दीवाने की कविता हो पानी प्यासे राही का
शायद काव्य रस की तृष्णा मुझे उसके मंच तक खींच लायी
भीड़ में उसकी बुलंद आवाज़ मुझे दी सुनाई
पूरे जन-मंडल को कविता आयी बड़ी रास
पर उसकी पंक्तियों को सुनते ही हुआ विचित्र सा आभास
ये कविता मुझे न जाने क्यूं लगी जानी पहचानी
अरे! बेशक ये मेरी कविता है, जो इसने अपनी बना कर सुना डाली !
तालियों से तिलमिला कर मैं घर की ओर भागता चला गया
पहुंचते पहुंचते ही सूरज मद्धम सा ढलता चला गया
कमरे में पोहोंचा, पाया खाली उस भूखे कूड़ेदान को
जैसे हज़म कर बैठा हो मेरे कागज़ की गेंदों को
मैं रोया
फिर सिस्का
फ़िर होश संभाला
और मुस्कुराया
और मदिरा की शीशी को कूड़ेदान का मेहमान बनाया
कलम को थामे मैंने कुर्सी पर खुद को जमाया
और प्रण किया कि यह कलम तब तक चलती रहेगी
जब तक इस रात की सुबह नही होगी…
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