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संक्रांत का सवेरा

ज़रा सुनो सुब्हा की हुंकार
पुकारे वो करके सिंगार
चल रोशन है अब जग सारा
पलभर नैनन से इसे निहार

पलभर नैनन को खोल दे
कलरव की खुशबू घोल दे
निंदिया के सपने छोड़ कर
जीवन स्वपन को मोल दे

पत्तों पर ओस सुहानी है
शाखों पर लदी जवानी है
फूलों की ज़िद तो देख ज़रा
बस खिलने की मनमानी है

दिनभर में कितना गया बदल
बादल बन बैठे गंगाजल
कीचड़ को चीर महकते हैं
ये रंग बिरंगे नीलकमल

संक्रांत की ये भीनी धूप
पतंगों से भरा गगन अनूप
सूर्य देव का स्मरण कर
धरती धरती अपना स्वरूप

चल त्याग दे तमस का घेरा
रोशन हुआ अब हर अंधेरा
कर सत्य की तू स्थापना
कर कर्म से एक नया सवेरा
कर कर्म से एक नया सवेरा


कवि – श्रीनाथजी

आ चल हिसाब करते हैं

आ चल हिसाब करते हैं
तू तेरी जागीर बिछा
में मेरी हथेली बिछाता हूं
ज़रा देख
लकीरें हाथ पर हो या ज़मीं पर
नसीब एक ही का बना है
हैना?

आ चल हिसाब करते हैं
तू तेरी महफ़िल दिखा
मैं मेरा जनाज़ा दिखाता हूं
ज़रा देख,
अर्थ किसका और अर्थी किसकी
हंसी किसकी फूटी, सिसक किसकी छूटी
नसीब एक ही का बना है
हैना?

तेरे मेरे जनम में बस
आंगन भर का फ़र्क है
एक तरफ़ झूठा स्वर्ग है
एक तरफ़ सच्चा नर्क है
यह कैसा मायाजाल,
जिसमें रोज हम मचलते हैं
आ चल हिसाब करते हैं

धूप भले ही एक सी
दोनों अंगना बसती है
छत बिना है छांव कहां
बस जलती मेरी बस्ती है
झुलसे घोंसलों में हम ही जाने
कैसे हम संभालते हैं
आ चल हिसाब करते हैं

पापी पेट है या सेठ यह तो मुनीम ही जाने
इंसाफ से सदा ही हम रहते हैं अनजाने
लकीरों पर रोकर हम अपने हाथ मलते हैं
आ चल हिसाब करते हैं

मुझे नसीब से बैर नहीं
जिसे कभी न मिला उससे बैर कैसा
चलता रहूंगा मैं मुसाफ़िर
मन में जतन है ख़ैर ऐसा
साहिलों के पार अपनी सुबह ढूंढा करते हैं
कभी खुद पर ही रोते, कभी मन ही मन हस्ते है
आ चल हिसाब करते हैं
आ चल हिसाब करते हैं


जीवन की सुराही

चंचल चिकनी सी माटी को
देखो चक्कर कैसे आए
जब भी कुम्हार चिकनी माटी
कोमल हाथों से सहलाए

पहिया रुका
अंगार फुंका
अब पकने की आई बारी

हर थके हुए राही की अब है
प्यास बुझाने की तयारी

तपने की तपस्या से ही
मिला सुराही को वरदान
थकते राही की प्यास बुझाने
की ली है अब उसने ठान

इस सुंदर सी सुराही की
प्यास भी निराली है
जो राही की प्यास पीकर
अपनी ही प्यास बुझाती है

पर एक दिन इस सुराही का भी
निश्चित अंत आना है
माटी की संतान को फिर
माटी में मिल जाना है

पर प्यास की तलाश हो
इस जग में जब तक जारी
पलेंगे कुम्हार,
तपेगी माटी
निकलेंगे घर से कई राही

हर प्यासे की प्यास में
विश्वास है यह पक्का
जीवन जननी और मृत्युदंड का
लगता रहेगा धक्का

जीवन का चलता रहेगा चक्का
जीवन का चलता रहेगा चक्का

आत्मविश्वास

पिघला-पिघला पारा हूं मैं
शीर्ष ध्रुव का तारा हूं मैं
तोडूं मैं कैसे भला
इस आसमां से वास्ता

उत्तर का उत्तर मैं सनातन
आए बीते कितने सावन
धर्म मेरा कर्म मेरा
टिमटिमाना जगमगाना

जो भूल कर मैं मान लूं
कि बादलों में खो गया मैं
राह मुझको देखकर है
राह अपनी खुद बुझाना

खोए अभी हैं कई मुसाफ़िर
कैसे भला मैं भटक जाऊं
चमचमाकर रोशनी से
रास्ता है खुद बताना

विश्व का विश्वास हूं मैं
भय का है ना अंश भीतर
कई युगों तक अब तो बस है
चमकना मेरा मुकद्दर

On Joy and Sorrow

The morning is mourning
The loss of every shining star

While the evening is leavening
With gems studded on a ceiling of tar

The morning has forgotten
It glows from starlight

While the evening doesn’t remember
It has lost the brightest of stars

So the mornings are sad
And the evenings happy

I wonder,

How much of our sorrow
Is in not remembering what we have

How much of our happiness
In not remembering what we have lost?

The Dance of Eternity

The wholesome Earth
It softly spins
And spins characters two
The screen of time
Screens the perfect rhyme
Of nights and mornings new

The tender Earth
It gently leans
To lullabies that bring
A canvas of hues
A farmer’s muse
Come winter, summer and spring

The mystic Earth
It flings around
The sun without fear
This pilgrimage
The chronicler of age
We fondly call it a year.

In moments lonely
We forget too soon
What we are really worth
We are a part
Right from the start
Of our soft and yielding Earth.

Then In moments cold
Of fading hope
In the dark and deep night
Beyond eclipse
With a prayer on our lips
Let’s shine our glorious light.

Like mother Earth
Being worthy children
In moments deeply blue
Let’s choose to dance
At every chance
And lean on shoulders too.

Then the stars and the Earth
And You and I
Shall rejoice in fraternity
With every stride
On this cosmic ride
Let’s dance into eternity…

UNITY

There are ties unseen

At times un-felt
That tether us
Time and again
To the
Absolute Unity

Today,
A togetherness arises
Tumbling as tides
Across the Atlantic
Tenacious as tomorrows
Unfolding
Time and again
Taking us all
Ashore
Together.

The Universe
Tends us towards understanding
This unity
Taking us all along
To the arena
That announces
This universal truth
To us all
Traveling
Under the timeless apparition,
Time.

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Did you notice that all words begin with the letter A, U , or T 🙂 )

The magic in simply being

Does the little bird know
Playing on branches low
As she sings with summer flair
She paints music in the air

Do the worker ants know
Amid their busy work flow
As beneath the earth they tunnel
They give the rain a funnel

Does the raindrop know
Falling through sunlit glow
Painting rainbows in blue skies
It gifts wonder to waiting eyes

The arena is open to seeing
There is magic in simply being
This open secret is the alphabet
That you must learn well and forget

Then shall you dance in all your glory
Unaware you are weaving a story
Letting work and wonder intertwine
Living elegantly, this universal design.

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